गुजिया और मैं - Gujiya aur main

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|| गुजिया और मैं ||


भारत में वैसे तो कई त्योहार मनाए जाते हैं इसी कारण इसे त्योहारों का देश भी कहा जाता है ऐसा ही एक त्योहार है जिसे कहते हैं होली जो कि हिन्दुओ के प्रिय त्योहारों में से एक है और होली की बात हो और गुजिया का जिक्र न हो ऐसा भला हो सकता है? राजस्थान से गुजरात, महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश से बिहार हर जगह इसे अलग अलग तरीके से बनाया जाता है और इसका खूब आनंद लिया जाता है बिना गुजिया के तो होली की कामना तक नहीं की जा सकती पर फिर भी एक जगह है जहाँ गुजिया का इतना प्रचलन नहीं है वो है हरियाणा। हाँ, कई जगह हरियाणा में गुजिया बहुत प्रचलित है पर कई जगह लोग इसका नाम और सूरत दोनो तक नहीं जानते ऐसे ही एक परिवेश से मैं भी आती हूँ जहाँ होली दीवाली पर चावल पकते हैं चावल के साथ इच्छा के अनुसार कढ़ी, राजमा, दाल इत्यादि बनाये जाते हैं और खांड, शक्कर, गुड़ के साथ धोक लगाई जाती है
चावल इधर त्योहारों या विशेष अवसरों पर ही बनता है चावल और दाल की खिचड़ी तो बीमार होते या जब राशन न हो मन न हो खाना बनाने का तो बना ली जाती है और दही दूध लस्सी के साथ खा के मौज मारते हैं यहाँ के लोग। त्योहारों पर खीर चूरमा जो कि बजरंगबली का प्रिय भोग है वह भी बहुत प्रचलित है खीर चूरमा राजस्थान और हरियाणा का बहुत प्रचलित भोजन हुआ करता था हालांकि आज भी है पर उतना नही जितना पहले होता था खैर हम गुजिया की बात कर रहे थे तो इसी कारण यहाँ गाँव में नानी या दादा के घर कहीं भी मैंने गुजिया का स्वाद नहीं चखा न देखा कि गुजिया कैसी दिखती है। फिर जैसे तैसे बड़ी होती गई मेरी स्कूली शिक्षा दीक्षा शहर में हुई शहर की मिठाई की दुकानों पर कभी कभार गुजिया की शक्ल देख तो ली पर पहचान नहीं पाई कि गुजिया कैसी होती है न मैंने गुजिया पर इतना ध्यान दिया कि मुझे खानी है या लालसा जगी हो।
एक दिन स्कूल में हिंदी की क्लास चल रही थी और मैडम एक पाठ पढा रही थी उसमें गुजिया का ज़िक्र हुआ तब पहली बार मैंने गुजिया का नाम सुना और इससे परिचित हुई फिर मैडम पढ़ाते पढ़ाते बोली कि “गुजिया एक प्रकार का खाने का व्यंजन होता है जो होली पर बनता है और बच्चों का प्रिय होता है” और पाठ में भी गुजिया का बड़ी शानदार तरीके से वर्णन किया गया था तब पहली बार जिज्ञासा और गुजिया के प्रति लालसा जगी ये तब की बात थी जब मैं नौंवी-दसवीं में पढ़ती थी और कल्पना कीजिये अब तक मैं गुजिया के नाम से परिचित तक नहीं थी ये बस एक शुरुआत थी गुजिया से मेरे रिश्ते की।
जैसे तैसे गुजिया को खाने का मन व प्रेम परवान चढ़ने लगा फिर एक दिन अचानक ही मैं और मम्मी मिठाइयों की दुकान पर गए हुए थे तब पहली बार मैंने गुजिया को करीब से देखा मैंने दुकानदार से कहा, “अंकल यह क्या है?” उन्होंने कहा―“गुजिया!” तब पहली नज़र में उससे एकतरफा प्रेम सा हो गया
फिर इस एकतरफा प्रेम को दोतरफा में बदलने की कसक मन में जगी और मैंने मम्मी की ओर प्यार से देखा और कहा, “मम्मी! मेको ये खानी है ले लो ना” मम्मी ने भी पहले कभी गुजिया नहीं खाई हुई थी तो मम्मी के मन में स्वाद के लिए शंका भी थी कि पसंद आये या न आये।फिर मम्मी ने गुजिया नहीं खरीदी और हम घर चले आये और मैं गुजिया की तरफ एकाएक देखती रह गई और हमारा मिलन अधूरा रह गया फिर घर जाकर मम्मी को मैंने और बातें करके और आग्रह करके आख़िरकार मना ही लिया और मैं एकलौती औलाद हूँ तो मम्मी भी फिर मान ही गई अगले दिन हम फिर गए सिर्फ़ गुजिया के लिए।
और फूटे नसीब मेरे उस दिन गुजिया दुकान पर ख़त्म हो गई थी और हमें खाली हाथ ही लौटना पड़ा फिर जैसे तैसे कामों में उलझ गए तो गुजिया की बात धुंधली हो गई और वो चाहत और जिज्ञासा भी थोड़ी कम हो गई पर ख़त्म अभी भी नहीं हुई। फ़िर कई दिन बीत गए और होली के दिन नज़दीक आ गए।
होली के दिनों में तो गुजिया भर-भर कर बनती है दुकानों पर तो मौके बनने लगे मार्किट में मम्मी के साथ राशन की खरीदारी करने चल पड़ी, लौटते वक्त दुकान पर गुजिया दिखी और मम्मी को मैंने बोला कि, “मम्मी गुजिया ले लो” मम्मी बोली, “आज सामान ज्यादा हो गया है तेरे भी दोनो हाथ भरे हैं रहने दो”
उस दिन भी हम दोनों का मिलन अधूरा ही रह गया फिर अगले दिन हम फिर गए दुकान पर और आखिर कार इस बार मैंने गुजिया ले ही ली मम्मी ने पाव किलो गुजिया पैक करवा ली और हम उसे घर ले आये और पहली बार मैंने गुजिया का स्वाद चखा पहली कोर में ही गुजिया का स्वाद जीभ पर चढ़ गया आहा!
वो स्वाद क्या स्वाद था बस मजा आ गया पर ये मजा अगले दिन सजा बनके निकला क्योंकि दुकान वाले ने बासी गुजिया दे दी थी और इसके कारण मुझे अगली सुबह दस्त लग गए और पेट दर्द करने लगा और उल्टियां होने लगी उस दिन पहली और आखिरी बार ही मैंने गुजिया खाई थी उसके बाद तो एक फोबिया से ही हो गया। कि गुजिया खाऊँगी तो बीमार पड़ जाऊंगी उस दिन के बाद गुजिया खाने का मन कभी हुआ ही नहीं टीवी पर कूकरी शोज़ में गुजिया बनते हुए कई बार देखी पर। और मन भी किया थोड़ा थोड़ा पर फिर वो अनुभव याद आ जाता और फिर मन मर जाता और न चाहते हुए भी गुजिया से एक दूरी बन गई।
न हमारे घर में न गांव में गुजिया बनती थी न गुजिया का खासा कोई रिवाज़ था तो इस तरीके से होली बिन गुजिया के ही निकल जाया करने लगी। और उस कटु अनुभव के कारण एक अदृश्य सी रेखा मेरे और गुजिया के मध्य खिंच गई जिसमें किसी की कोई गलती भी नहीं थी। और इस गुजिया के जैसे ही जीवन में कुछ घटनाएं काफी अजीब होती हैं जिनमें किसी की कोई गलती होती नहीं है पर फिर भी हमें उन्हें झेलना पड़ जाता है ये छोटे मोटे किस्से बहुत सीख दे जाते हैं और मैं भी इस डर को दूर कर फिरसे अब गुजिया अपने पुराने प्रेम से मिलन की कोशिश करूंगी।
क्योंकि उस वक़्त परिस्थितियां अलग थी जरूरी तो नहीं हर बार वहीं हों इस बार अच्छी दुकान से ताज़ी गुजिया खाऊँगी पर खाऊँगी जरूर ऐसे कैसे अपने प्रेम को भूल जाऊं, बहुत वर्ष बीत गए हैं पर गुजिया के प्रति भाव नहीं बदला। आशा है आपको यह कहानी पसन्द आई होगी जो कि मेरे जीवन की सत्य घटना है!

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