डिग्री - एक कविता



 "डिग्री"


क्या लाभ है 
उस "डिग्री" का
जब वो केवल
अलमारी तक
सीमित रह जाये,
और तुम केवल करती
रह जाओ बर्तन कटका
भरती रह जाओ मटका
अपने श्रम के पानी से
जब सुनने मिले तुम्हें
की, “तुम खाती हो 
मेरे पैसों का..”
जब ख़र्च करने से पहले
सिकोड़ना पड़े तुम्हें हाथ
और तुम्हारा वो चंचल मन...

जो चाहता है बहुत कुछ
जिसमें भरे पड़े हैं सपने
कुछ आशाएं कुछ आकांक्षाएं
और कुछ तुम्हारे अपने...
तुम चाहती हो सजना
किंतू तुम्हारे हाथ हैं सीमित
मात्र उसकी "हाँमी" तक
और तुम्हारे बटुवे में रखे कुछ
गिनती के रुपयों तक
जिनका देना है तुम्हें
हिसाब... किंतु किसको?
उसको? जो कर सकता है
अपनी आशाएं पूरी
जिसे नहीं देना पड़ता
कोई लेखा-जोखा
अपने क्रय-विक्रय का,...
सब होते हुए भी सिखाता है
तुम्हें वो अपनी आशाओं को
सिकोड़ कर बंधना...

ए लड़की! तुम इतनी भी
दुर्बल नहीं तुम संभाल सकती हो
अपना घर और अपना स्वाभिमान...
बस तुम्हें बनना है निडर
नहीं रहना किसी पर निर्भर
तुम खोलो उस अलमारी को
निकालो अपनी "डिग्री" को
ढूंढो कोई काम जो
ऊँचा रखे तुम्हारा नाम
जो बना दे तुम्हें पंछी
इस उन्मुक्त गगन का..

पर रखना तुम ध्यान
मार्ग का रखना तुम ज्ञान
भटक न जाना पथ पर
जो है बड़ा ही वीरान...
जहाँ मिलेंगे तुम्हें कुकुर
जो चाहते होंगे तुम्हें नोचना
पर तुम करना उनका सामना
और बनाना अपने हृदय को
एक कठोर चट्टान...
तुम बचाना अपना स्वाभिमान..
और बनना तुम केवल तुम!

– पूजा सांगवान

Remarks: Use your "degree" instead "pronouns" to become an independent and empowered woman. 

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