पिंजरों में बन्द इस नारी के मन को कभी तो उड़ने दो -Pinjaro Mein Band Is Naari Ke Mann Ko Kabhi To Udne Do...



बचपन से रही बंधनो में बंधी
कुछ बोल न सकी मैं अपनी बातों को
इन अनदेखे सोने के
पिंजरों में बन्द इस नारी के
मन को कभी तो उड़ने दो...

माँ बाप की इज़्ज़त को
समाज से सामंजस्य के लिए
चुप रखी मैंने अपनी जुबान
इस जुबान में बन्द लफ़्ज़ों को
हवा में कभी तो खुलने दो...

काका-मामा नाना-दादा
सबने समझाया तुम चुप रहो
घर के मामलों में दखल न करो
ये घर मेरा भी है अपने ही घर में
मुझे कभी तो घुलने दो...

जब-जब घर में मैंने जुबान खोली
तो गुस्साए से स्वर में बुआ बोली
“चलने लगी हो अपनी माँ के इशारों पर
क्या लिहाज नही रहा अब बड़ों का”
अपने ही घर में अपनी साधारण बातें
सबके आगे कभी तो रखने दो...

जब पिता से की मैंने भरी आंखों से बात
पिता बोले, “तेरी माँ ही सिखाती हैना तुझे
लगता है माँ की जुबान काटनी पड़ेगी”
डर-डर कर चुप-चुप सी रहती मैं
मुझे कभी तो बोलने दो...

चलो मान लिया मैं बच्ची हूँ घर की
मेरी माँ तो बड़ी है कम से कम
उनकी आवाज़ ही इस घर में
इज़्ज़त मान सम्मान के साथ
सबके आगे कभी तो उठने दो...

रोती हुई गई मैं अपने मामा के पास
समझेंगे वो बात ये थी एक आस
झूठी सी सांत्वना देते हुए उन्होंने कहा–
“चुप रहो तुम ये तुम्हारे घर का है अपमान”
दूसरे बोले कि, “ज़ुबान बहुत आ गई
लड़की की पढ़कर दो-चार किलास”
मेरे इन मासूम से इरादों को घर में
पँख कभी तो लगने दो...

नानी दादी के तो क्या कहने
दुत्कारती हुई कहती हैं–
“बेटा मर्दों के आगे अपनी बात
नीची करनी ही अच्छी होती है”
रोज़ पीछे जाती हुई मैं को
आगे कभी तो बढ़ने दो...

जैसे-तैसे मायके में गुज़ार लिया वक़्त
चलो कोई नही मैं भी बोलूंगी किसी दिन
इस घर न सहीं तो उस घर ही सहीं
पर क्या जानूँ थी मैं ये बात
कि मेरे भी होंगे वही हाल
घर की माँ के थे जो हालात
मजबूर सी मैं की मजबूरी
घर में कभी तो टूटने दो...

पति ने कहा ये करो सास-ससुर ने कहा वो,
मैंने किया हर काम बिन पूछे कोई सवाल
पर क्यों सबने कहा ये जब आई मेरी बात कि
“तुम चुप रहो तुम्हें बीच मे बोलने की जरूरत नहीं”
उस घर से तो मैं हुई ही पराई थी
इस घर में मैं आई ही पराई थी
बेघर सी मैं का कोई प्यार का
आशियाना कभी तो बनने दो...

घर से बाहर निकल कर दुनिया में
बने मेरे बहुत से साथी मित्र दोस्त
मस्ती-मज़ाक, दुख-सुख का हाल
इनसे ही कभी बतला लिया करती थी
पर उन चार लोगों से ये सहन नही हुआ
उठा दिए मेरे चरित्र पर कुछ गहन सवाल
मेरी सच्चाई-अच्छाई को उन सवालों का
जवाब कभी तो बनने दो...

भाई बहन कोई न रहा बचपन से
एकलौती थी बचपन से
बस अपनी थी तो केवल माँ
दोस्त थे तो वो भी कुछ नाम के
तो कुछ सच्चे दिल के भी थे
मेरा दुख बतलाती मैं को
अपनी माँ और दोस्तों के आगे
कभी तो बिलखने दो...

मैं भी इंसान हूँ मुझमें भी भावनाएं हैं
कभी न किसी का चाहा बुरा
मुँह से मेरे सिर्फ निकली दुआ
इस कठोर सी दुनिया में,
इस चंचल मन नारी को खुलकर
कभी तो निकलने दो...!

– Pooja Sangwan

4 comments:

  1. बहुत सुंदर!
    बहुत कुछव प्रेरणादायक,भावनात्मक और अनछुए और अनकहे अनुभव..अपनी स्वलिखित कविता मे आपने पिरोया!!
    बहुत सुंदर!!
    🙌😊🇮🇳🙏💐

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  2. बहुत सुंदर!
    बहुत कुछव प्रेरणादायक,भावनात्मक और अनछुए और अनकहे अनुभव..अपनी स्वलिखित कविता मे आपने पिरोया!!
    बहुत सुंदर!!
    🙌😊🇮🇳🙏💐

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