कबू की कलँगी और दो पंख



एक दिन की बात है मैं बाहर ऑफिस से घर आई आते ही दरवाजा खोला और रसोई की तरफ चली गई मेरा गला सूख रहा था तो पानी पीने के लिए गिलास ढूंढ रही थी गिलास उठाते समय मेरी नज़र के प्लेट पर गई जिसमें 5 अंडे रखे थे चूंकि मैं शाकाहारी हूँ तो मैंने माँ को आवाज़ लगाई और पूछा, “माँ... ये अंडे कहाँ से आये और कौन लाया इन्हें घर में?”


माँ ने अपने कमरे से थोड़ी भारी मोटी आवाज़ में बताया, “पता नही शायद तुम्हारे पापा लाये होंगे वही लाते हैं ये अड़ंगा घर में, कोई नहीं हम बाहर फेंक देंगे।”

मैंने माँ से कहा, “कोई बात नहीं इसमें से तीन अंडे सही से लग रहे हैं इनको वापस दुकान में दे देंगे सांफ करके..”

[मैं दो अंडों को गौर से देख कर मन ही मन सोच रही थी] – ये तो धड़क रहे हैं...

तभी एक अंडा तो टूट भी गया उसकी परतें मैंने हटाई तो देखा ये अंडा चील का है और आकार में भी बहुत बड़ा था इसमेंसे चील का बच्चा निकला मैंने माँ को आवाज़ लगाई, “माँ... माँ.. माँ.. जल्दी आओ 2 अंडों में से बच्चे निकल रहे हैं”

माँ दौड़ी हुई आई

मैंने देखा कि एक अंडा भीतर के चूज़े से टूट नहीं पा रहा है तो मैं उसकी सहायता करने के लिये बाहर से झाड़ू की लकड़ी लाने गई और आई तो देखा कि मम्मी ने चील के बच्चे को बाहर रख दिया कि उड़ जाएगा ताकि घर से दूर रहे क्योंकि चील होते ही खूंखार हैं। ये सब बातें मैं छोड़ते हुए मैं दूसरे अंडे की ओर ध्यान दे रही थी जो सही से टूट नहीं पा रहा था मैंने लकड़ी ली और अंडे की परतें तोड़कर हटाई परतें हटाई तो अंडे के भीतर का सफेद भाग प्लेट में फैल गया फिर मैंने अंदर के चूज़े को अपने हाथों में लिया वह धड़क नही रहा था हिल नहीं रहा था मैंने गुनगुने पानी से उसे साफ़ किया और चूज़े को थोड़ा हिलाया डुलाया और वो हिलने लगा मैंने पहली बार किसी पक्षी के बच्चे को अपने हाथों में जीवित होते हुए देखा था यह बहुत ही अद्भुत प्रकार की भावना थी जिसका मैंने अनुभव किया।

मैंने फिर चूज़े की ओर ध्यान से देखा तो पाया कि वह एक सफेद कबूतर का अंडा था जिसके सिर पर एक हीरे की कलँगी लगी हुई थी मैंने आज से पूर्व ऐसा पक्षी नहीं देखा था माँ कह रही थी कि इसे भी बाहर उड़ने छोड़ दो पर उस पक्षी की सुंदरता देख मैंने कहा, “नहीं माँ, इसे मैं पालूंगी और इसका ध्यान रखूंगी देखो यह एक अद्भुत विचित्र प्राणी है”

माँ ने भी पक्षी को देख कर पालने के लिए हाँ कर दी मैंने कहा मैं चील को भी ले आती हूँ वो भी हमारे साथ रहेगा तो खूंखार नहीं बनेगा उसकी शिक्षा दीक्षा मैं करूँगी वह एक अच्छा जीव बनेगा। इतने में मैं बाहर देखती हूँ तो पता चलता है वह चील पड़ोसी की दीवार पर बैठा है मैं उसे कह रही हूँ कि, “वापस आओ चीलू.." पर वह दूर चला जाता और जाते समय मुझे घूर कर देखता है

मुझे बुरा लगता है किंतु इतने में कबूतर की सिसकियों की आवाज़ आई मैंने उसे संभालना ज़रूरी समझा मन ही मन मैंने स्वयं को कहा ―एक जीव खो चुकी हूँ दूसरा नहीं खोना चाहती!

मैंने देखा कि वह भूखा है अगर वह अपनी माँ के पास होता तो उसकी माँ उसे खाना खिलाती पर मैं क्या खिलाऊँ? आनन-फानन में मैंने एक हाथ में बाजरे के दाने लिए दूसरे हाथ में मैंने कबूतर को लिया उसे दाने खिलाये और उसने खा भी लिए। फिर मेरे मन में बात आई कि यह छोटा है और इतना कठोर खाना नहीं खा पायेगा इसलिए मैंने फ्रिज़ से पनीर निकाला और दूध में मिलाकर गैस पर थोड़ा गुनगुना कर लिया और एक चम्मच में वह घोल लिया और अपनी हथेली पर लिया और पूरा मैंने कबूतर को खिला दिया कबूतर ने बड़े आनंद के साथ पूरी हथेली खाली कर दी मैंने दूसरी चम्मच और हथेली में ली पर कबूतर ने नहीं खाई तो मुझे आभास हुआ कि कबूतर कर का पेट भर गया है इसलिए मैंने और खाना नहीं खिलाया।

कबूतर को एक रुमाल में लपेट कर मैंने अपने बिस्तर में रख लिया और अपने हाथ धोकर रसोई सांफ कर के अपने कमरे में आ गई और ध्यान से उस कबूतर को देखा और मैं उसे निहार कर उससे बातें करने लगी और धीमी से आवाज़ में बोली,“स्वागत है हमारे परिवार में छोटू से प्यारे से कबूतर... कबूतर? कबूतर कबूतर बहुत बड़ा नाम हो जाएगा इसलिए मैं तुम्हें आज से काबू नहीं कबू.. कबू बुलाऊंगी”

“कबू कैसे हो प्यारे कबू”

इतने में कबू ने अपने पंख फैलाये और उड़ने की कोशिश करने लगा मैंने भी उसे उड़ने दिया और वह उड़ कर पँखे पर बैठ गया और घर में इधर उधर उड़ने लगा मैंने फिर गुस्से से कहा, “कबू! यह क्या कर रहे हो तुम वापस आओ नहीं तो मैं पीट दूंगी”

वह नहीं आया मैंने फिर से कहा, “देखो मैं नाराज़ हो जाऊंगी कबू” तो वह आकर मेरे हाथ पर बैठ गया फिर मैंने उसे बिस्किट का चूरा खिलाया और मैं खूब मुस्कुराई।

धीरे-धीरे दिन बीतते गए कबू मेरा और माँ का लाडला बन गया हम दोनों उसका बहुत ध्यान रखते थे और मुझे तो कबूतरों की भाषा भी समझ आने लगी अचानक मैं उसे सुन सकती थी और बात कर सकती थी साथ ही बाकी पक्षियों से भी जो कबू के दोस्त थे।

अगले दिन मैं ऑफिस से आई और कबू को आवाज़ लगाई कबू आया नहीं माँ से पूछा तो माँ बोली, “मैंने कहा था न कि भाग जाएगा लो गया वो वापस अपनी दुनिया” मैं उदास हुई और ज़ोर से आंसुओं भरे स्वर में आवाज़ लगाई, “कबूउउउउउ.....”

और ये क्या अचानक कबू आ गया और मेरे कंधे पर आकर बैठ गया मैंने कबू से कहा, “मुझे विश्वास था तुम मुझे छोडकर नहीं जा सकते मुझे विश्वास था तुम आओगे मेरे कबू और तुम आ गए देखा माँ मेरा कबू मुझे छोड़कर दूर जा ही नहीं सकता”

कबू ने भी कहा, “हाँ पूजा मैं नहीं जा सकता न ही जा पाऊंगा...”

मैं कबू कब गले में एक छोटा सा ट्रांसमीटर लगा दी ताकि अगली बार से वह दूर जाए तो मैं उसे ढूंढ पाऊँ और वह खो न जाए। ऐसे ही कई दिन बीत गए

एक दिन मैं हर दिन की तरह ऑफिस से लौटी और हमेशा की तरह मैं कबू को आवाज़ लगाई “कबू..! ओ कबू कहाँ हो तुम कबू”
वह आया नहीं मैंने उसके बाकी के दोस्तो और अन्य कबूतरों से पूछा कि कबू कहाँ है तो उन्होनें कहा― हमें नहीं पता आज वह हमारे साथ खेलने नहीं आया।

मैं परेशान होती हूँ माँ से पूछती हूँ माँ कबू कहाँ गया माँ ने कहा आ जाएगा तुमसे दूर जाएगा भी कहाँ इसी परेशानी में मैं रो पड़ती हूँ शाम से रात रात से सवेरा और कब अगला दिन सिर चढ़ आया पता ही नहीं लगा और अब तक भी कबू का कोई पता नहीं लगा फिर मुझे ट्रांसमीटर की बात याद आई मैंने अपना लैपटॉप निकाला और ट्रांसमीटर की लोकेशन ढूंढने लगी पर ट्रांसमीटर से कनेक्शन बन ही नहीं पा रहा था मैं दुखी हो गई और रोने लगी।

रोते हुए मेरी नज़र उसके बिस्तर उसके बर्तन और उसकी पहली छोटी सी चम्मच जो मैंने तार से सिर्फ कबू के लिए बनाई थी उस पर पड़ी और कबू के साथ बिताए सुनहरे क्षणों को याद करने लगी उसके बिस्तर में मुझे उसकी हीरों से बनी कलँगी दिखी और उसके दो पंख मैं उन पंखों और उस कलँगी को हाथ में लिए बस रोये जा रही थी रोते रोते बस एक ही आवाज़ मुँह से निकल रही थी, “ओ कबू, कबू... कबूउउउउ...”

तभी बाहर से सटाक से आवाज़ आई और एक बार और मेरे मुँह से निकला... "कबू"


नोट : यह कहानी मेरे एक सपने से प्रेरित है जिसे मैंने शब्दो पर उतारा है अतः काल्पनिकता से भरपूर।

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